जहां जज़्बा हो, वहीं तो मुफ़ीद बहस होती है,
वरना माइक थमा दो, भीड़ बस ऐसे ही जमा हो जाएगी।
—-Isha—-
जहां जज़्बा हो, वहीं तो मुफ़ीद बहस होती है,
वरना माइक थमा दो, भीड़ बस ऐसे ही जमा हो जाएगी।
—-Isha—-
कभी कभी संगमरमर में तराशी हुई आँखें ही काफी हैं, पल झपकते उनका रंग नहीं बदलता।
पढ़ते जाओ तो कहानियों का ढेर मिलता है। चलो कहानियाँ भी ये जूठ नहीं बोलता।
पढ़ने वाले बस नज़रिया बना लेते है, एहसासों को कोई समझ नहीं पाता।
——ईशा—-
कहाँ से शुरू करूँ
कहानियों का बस्ता भरा है।
कुछ नामक लगा के चटपटी
तो कुछ मीठी सी शिकंजी वाली।
कुछ ठहाकों से भारी हाँसी वाली
तो कुछ ऐसी की रोके भी ना रुके आंसुओं वाली।
पर हर किसी के कुछ ख़ास लम्हे ज़रूर होते है
जिन्हें याद कर हम गाड़ियाँ गुज़र देते है।
मैं अभी भी टटोल रही ही इस बस्ते को
पलट रही हूँ कहानियों के हर पन्ने को
मिल नहीं रहा वो पल।
कभी था भी या खो गया
याद नहीं।
याद… वक़्त की फिसलती डोर पे टंगा हुआ, रिसता हुआ
डोर के छिले हुए कोने पे अटक गया है।
उसको भी छाँट के देख लू
कहीं से तो शुरू करूँ।
——-ईशा—-
यह किताब अभी भी बाक़ी है,
कुछ पन्ने अभी भी ख़ाली है,
लिखना तो बहुत कुछ था अभी
पर कलम की सिहायी कुछ ख़ाली है ।
सोंचा कुछ माँग लूँ तुमसे,
या साथ बैठ के कुछ लफ़्ज़ों को भरू,
तुम्हें डूँडने निकली
तो पन्ने उड़ गए,
ख़याल तुम्हें जो सुनाने थे
वह भी गल गये।
नया सफ़ा, नया लफ़्ज़ कुछ है नहीं,
याद का बना हुआ अक्स ही अब काफ़ी है।