Nov 24, 2019

ये दोपहरें


ये दोपहरें....यादों पे पड़ी धूल को चमका रही है। अब समझना यह है कि पसीने से तरी उँगलियों से उस धूल को पोंछ के संदूक को खोलाजाए या नहीं। कई पलों के नीचे दबा रखा था उन लम्हों कोजो पास तो चाहिए थी पर साथ नहीं। शायद इसलिए संदूक में बंद कर स्टोरके किसी कोने में छुपा दिया था उन्हें। क्या उलझन चल रही थी दिमाग़ और दिल के बीच। लम्हों को फिर ज़िंदा करने का भोज आँखेंसम्भाल पाएँगीया उनको पोंछते पोंछते अभी के पलों को मिटा जाएँगी। 
ये दोपहरें... उन सर्द रातों से भी उलझ रही थीमानो कह रही हो “मैं तो चली जाऊँगीसोना तुम्हें उसी बिस्तर पे हैक्या नींद  पाएगी।” कितना मंतक हो गया है दिमाग़या खुद से भाग रहा हैदिल की बड़ती हुई हर धड़कन पे अपने हाथ पीछे खींचे जा रहा है। ऐसे ही कटतीहै ज़िन्दगी शायदऔर सकूँ कभी  ही नहीं पाता है। 

Nov 12, 2019

एक छोटी सी मुलाक़ात

आज एक अजनबी से मुलाक़ात हुई,
गुफ़्तगू यूँ शुरू हुई जो कहानियों की डोर में बंद गयी।
ना नाम पूछा, ना काम,
फिर भी ज़िन्दगी की कुछ अनकही पर्तें खुल गयी।
कभी रोए नहीं अपनों के सामने, कि लगे ना दिल कमज़ोर सा है,
पर यहाँ हर दरार में आहट सी हो गयी।
यह अच्छा तरीक़ा था रूहों को पढ़ने का,
जब बात शायरी में हो गयी।

——इशा——

Nov 3, 2019

बहकता बादल

वो आया दूर से था,
मेरी तरफ़,
घना, भरा हुआ, प्यार से,
इस बार मुझपे बरसेगा, कुछ ऐसा लगा था।
तो इस बरस बारिश होगी,
हवाएँ भी तो अब रुख़ बदल रही थी।
मौसम हर सुर गा भी रही थी।
बरसने वो वाला था, आँखें मेरी गीली थी।
कई मौसम जो बीत चुके थे।
खिड़कियों की मुँडेरों पे भी हाथों के निशान छप गए थे।
उम्र की धूप और सूखी रेत से बालों का रंग ही बदल गया था।
लगा नहीं था वो कभी आएगा,
दरारों से भरी जमीं की कुछ प्यास मिटाने,
लगा नहीं था वो आएगा,
पीले पड़े रंग में रंग भरने।
पर इस बार कुछ ऐसा लगा था,
उसकी ख़ुशबू जो आयी थी।
चलो फिर कुछ उम्मीद तो जगी थी,
कि इस बार वो आएगा।