Feb 11, 2014

दर- हकीकत यह कि वोह दम-साज़ न था

एक लम्बा अरसा हो गया जब अपने जहाँ को तोडा  था,
आरिज़ाह हुए रिश्ते को रोती आँखों से धोया था।
ऐसा नहीं कि तेरी आरज़ू नहीं की,
पर तेरे ही ज़हर से अपने मलहम का अब्र बनाया था।

वक़्त को काटते हुए वक़्त बीत गया,
मेरे दिल की दरारों में अब्र का गोंद भर गया।
जो था पहले मुझमें कहीं,
अब खुदका होके भी अनजान सा लग गया।  

कभी लगा कि दुनिया क्या तुझ जैसी ही है,
या खुदा की बरक़त मुझपे कुछ वक़्त ले रही है।
घडी की सूयिों में चलते बे-बाक मेरे कदम,
उम्र से  कुछ आगे इस वक़्त को ले चल रही है।

बिस्मिल्लाह किया मैंने कि उसकी बिशारत आयी,
बियाबान ने  फूल खिलने कि बिसात पायी।
खुद को जब आईने में देखा,
तो अपनी ही छुपी हुई परछाई पायी।

दर- हकीकत यह कि वोह दम-साज़ न था,
उसका साथ थोडा दर्द-अंगेज़ कुछ ज़यादा दर्द-नाक सा था।
आज फिर तेरी हज़रत हुई,
आज फिर मेरा दिल-शिक़स्त हुआ था।