Dec 16, 2023

कहाँ से शुरू करूँ

 कहाँ से शुरू करूँ

कहानियों का बस्ता भरा है।

कुछ नामक लगा के चटपटी

तो कुछ मीठी सी शिकंजी वाली।

कुछ ठहाकों से भारी हाँसी वाली

तो कुछ ऐसी की रोके भी ना रुके आंसुओं वाली।

पर हर किसी के कुछ ख़ास लम्हे ज़रूर होते है

जिन्हें याद कर हम गाड़ियाँ गुज़र देते है।

मैं अभी भी टटोल रही ही इस बस्ते को

पलट रही हूँ कहानियों के हर पन्ने को

मिल नहीं रहा वो पल।

कभी था भी या खो गया

याद नहीं।

याद… वक़्त की फिसलती डोर पे टंगा हुआ, रिसता हुआ

डोर के छिले हुए कोने पे अटक गया है।

उसको भी छाँट के देख लू

कहीं से तो शुरू करूँ।


——-ईशा—-

Nov 25, 2022

यादों का अक्स

 यह किताब अभी भी बाक़ी है, 

कुछ पन्ने अभी भी ख़ाली है, 

लिखना तो बहुत कुछ था अभी 

पर कलम की सिहायी कुछ ख़ाली है ।

सोंचा कुछ माँग लूँ तुमसे,

या साथ बैठ के कुछ लफ़्ज़ों को भरू,

तुम्हें डूँडने निकली

तो पन्ने उड़ गए,

ख़याल तुम्हें जो सुनाने थे

वह भी गल गये।

नया सफ़ा, नया लफ़्ज़ कुछ है नहीं,

याद का बना हुआ अक्स ही अब काफ़ी है। 

Dec 22, 2019

वक्त के धागे

फ़ितरत यूँ रही हर शख़्स की कि भागता रहा वो नए पलों की तलाश में. ढूँढता रहा ज़िन्दगी की दुकान में की अब नया पल आएगा, और उसके दिन की बोनी होगी। हर आता हुआ पल पुराना होता चला गया, फिर भी ना जाने किस नए पल की इंतज़ार में वो ताकता रहा...वक्त पे वक्त रखके नयी दुकान बनता रहा।
अब वक्त कम पड़ गया, पड़ना ही था, गिनके शायद उतना ही लाया था। और अब बचे हुए वक्त के धागे को खींचते हुए, फिर भागा, पर पीछे की और। उसी पहली दुकान पे, धूल में लथपथ गुज़रे हुए पलों को झाड़ते हुए, रोया आज बहुत वो।
नया तो बस एक भ्रम है। वो भ्रम जो इफ़रित से कम नहीं। बस वो चमकता हुआ धागा चाहिए होता है उसे...वक्त का।और अब वो जीत गया, वो धागा जो तुम्हारे पास खतम हो गया।

——-इशा——-

Dec 7, 2019

पुराने हिस्से

आज दर्द के धागों से मैंने कुछ पुराने पन्नों को सी दिया,
वक्त के धागे फिर कुछ कमजोर से पड़ गए थे ।

—-इशा—-

Nov 24, 2019

ये दोपहरें


ये दोपहरें....यादों पे पड़ी धूल को चमका रही है। अब समझना यह है कि पसीने से तरी उँगलियों से उस धूल को पोंछ के संदूक को खोलाजाए या नहीं। कई पलों के नीचे दबा रखा था उन लम्हों कोजो पास तो चाहिए थी पर साथ नहीं। शायद इसलिए संदूक में बंद कर स्टोरके किसी कोने में छुपा दिया था उन्हें। क्या उलझन चल रही थी दिमाग़ और दिल के बीच। लम्हों को फिर ज़िंदा करने का भोज आँखेंसम्भाल पाएँगीया उनको पोंछते पोंछते अभी के पलों को मिटा जाएँगी। 
ये दोपहरें... उन सर्द रातों से भी उलझ रही थीमानो कह रही हो “मैं तो चली जाऊँगीसोना तुम्हें उसी बिस्तर पे हैक्या नींद  पाएगी।” कितना मंतक हो गया है दिमाग़या खुद से भाग रहा हैदिल की बड़ती हुई हर धड़कन पे अपने हाथ पीछे खींचे जा रहा है। ऐसे ही कटतीहै ज़िन्दगी शायदऔर सकूँ कभी  ही नहीं पाता है। 

Nov 12, 2019

एक छोटी सी मुलाक़ात

आज एक अजनबी से मुलाक़ात हुई,
गुफ़्तगू यूँ शुरू हुई जो कहानियों की डोर में बंद गयी।
ना नाम पूछा, ना काम,
फिर भी ज़िन्दगी की कुछ अनकही पर्तें खुल गयी।
कभी रोए नहीं अपनों के सामने, कि लगे ना दिल कमज़ोर सा है,
पर यहाँ हर दरार में आहट सी हो गयी।
यह अच्छा तरीक़ा था रूहों को पढ़ने का,
जब बात शायरी में हो गयी।

——इशा——

Nov 3, 2019

बहकता बादल

वो आया दूर से था,
मेरी तरफ़,
घना, भरा हुआ, प्यार से,
इस बार मुझपे बरसेगा, कुछ ऐसा लगा था।
तो इस बरस बारिश होगी,
हवाएँ भी तो अब रुख़ बदल रही थी।
मौसम हर सुर गा भी रही थी।
बरसने वो वाला था, आँखें मेरी गीली थी।
कई मौसम जो बीत चुके थे।
खिड़कियों की मुँडेरों पे भी हाथों के निशान छप गए थे।
उम्र की धूप और सूखी रेत से बालों का रंग ही बदल गया था।
लगा नहीं था वो कभी आएगा,
दरारों से भरी जमीं की कुछ प्यास मिटाने,
लगा नहीं था वो आएगा,
पीले पड़े रंग में रंग भरने।
पर इस बार कुछ ऐसा लगा था,
उसकी ख़ुशबू जो आयी थी।
चलो फिर कुछ उम्मीद तो जगी थी,
कि इस बार वो आएगा। 

Jan 28, 2019

भरोसा

तेरे सम्भालने से मेरे फिसलने तक एक शब्द का फ़ासला है- भरोसा ।
तुम कहदो कि मत करना,
तो अब से मैं तेरी नहीं।
तुम कहदो कि करना,
तो तेरी बेरुख़ी से बड़ी उम्र इंतज़ार की मेरी।

काश

काश तुम कहते कि मेरे सख़्त हाथों में अब भी तुम्हारी ख़ुशबू है,
तो मैं कुछ पल और रूकती।
काश कि काश तुम कहते मैं रूठा हूँ, छूटा नहीं,
तो मैं कुछ पल और रूकती।
बंद दरवाज़ों में बेचैनी सी थी, साँसो में हवा कुछ कम सी थी,
अब खिड़कियाँ खोल के निकलना पड़ा,
काश तुम कहते कि इंतज़ार करना, कुछ अँधेरा होगा, पर डर ना करना,
दरवाज़ा मैं ही खोलूँगा,
तो मैं कुछ पल और रूकती।
काश कि काश तेरे रूह की आवाज़ मैं सुन पाती,
पर नब्ज़ ज़रा फीकी सी है आज, अमुमन खुदा नहीं बनना,
काश तुम उस दभी सी धड़कन को सुन पाते,
तो मैं कुछ और पल रुकती ।


—-इशा——

Nov 1, 2018

भीगे अल्फ़ाज़

डल झील के सीने पे तैरती मेरी जाँ,
पिघलते चिनार के पत्तों में लिपटा मेरा अक़स,
ढलते सिरय में तेरी राह देख रहा है।

लोग कहते है कि खो गया है तू,
कहीं शायद तारों के पार, या कहीं शायद मिट्टी में।
पर ऐसा कैसे हो सकता है।
तेरी ख़ुशबू तो अभी भी मेरे हाथों पे है,
तेरे होंटों का एहसास अभी भी मेरे कानों पे है,
अभी भी दरवाज़ा खुला रखती हूँ,
तुझे देर से आने की आदत जो है।
अब रोशनी भी तो जल्दी जाती है,
और बर्फ़ की सफ़ेद सील्टे भी बड़ी हो रही है,
बेपरवाह मैं तुझे डूँड़े जा रही हूँ।

पर लोग  कहते है नहीं आएगा तू।
पर ऐसा कैसे हो सकता है।
तूने ही तो कहा था जाँ हूँ मैं तेरी,
मौत से पहले तू अलग कहाँ हो पाएगा।


—-इशा—-