ये दोपहरें....यादों पे पड़ी धूल को चमका रही है। अब समझना यह है कि पसीने से तरी उँगलियों से उस धूल को पोंछ के संदूक को खोलाजाए या नहीं। कई पलों के नीचे दबा रखा था उन लम्हों को, जो पास तो चाहिए थी पर साथ नहीं। शायद इसलिए संदूक में बंद कर स्टोरके किसी कोने में छुपा दिया था उन्हें। क्या उलझन चल रही थी दिमाग़ और दिल के बीच। लम्हों को फिर ज़िंदा करने का भोज आँखेंसम्भाल पाएँगी? या उनको पोंछते पोंछते अभी के पलों को मिटा जाएँगी।
ये दोपहरें... उन सर्द रातों से भी उलझ रही थी, मानो कह रही हो “मैं तो चली जाऊँगी, सोना तुम्हें उसी बिस्तर पे है, क्या नींद आ पाएगी।” कितना मंतक हो गया है दिमाग़, या खुद से भाग रहा है, दिल की बड़ती हुई हर धड़कन पे अपने हाथ पीछे खींचे जा रहा है। ऐसे ही कटतीहै ज़िन्दगी शायद, और सकूँ कभी आ ही नहीं पाता है।
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