कहाँ से शुरू करूँ
कहानियों का बस्ता भरा है।
कुछ नामक लगा के चटपटी
तो कुछ मीठी सी शिकंजी वाली।
कुछ ठहाकों से भारी हाँसी वाली
तो कुछ ऐसी की रोके भी ना रुके आंसुओं वाली।
पर हर किसी के कुछ ख़ास लम्हे ज़रूर होते है
जिन्हें याद कर हम गाड़ियाँ गुज़र देते है।
मैं अभी भी टटोल रही ही इस बस्ते को
पलट रही हूँ कहानियों के हर पन्ने को
मिल नहीं रहा वो पल।
कभी था भी या खो गया
याद नहीं।
याद… वक़्त की फिसलती डोर पे टंगा हुआ, रिसता हुआ
डोर के छिले हुए कोने पे अटक गया है।
उसको भी छाँट के देख लू
कहीं से तो शुरू करूँ।
——-ईशा—-