आज कल दीवारें दोस्त बनी बैठीं है,
जो बोलती नहीं बस सुनती है,
कभी आँखों को सोखती है,
तो कभी जल्लाहट को लेती है।
अपने सीने को सख़्त कर,
मेरा सिरहाना बनती है।
कहती है की देख मुझे,
सफ़ेद रंग में पाक लिपटी हूँ,
पर कोना कोना दर मेरा,
ईंट की दरारों में सनी है।
उन दरारों को गीली रेत से जोड़कर,
हज़ारों एहसासों का बोज लिए खड़ी है।
—-इशा—
जो बोलती नहीं बस सुनती है,
कभी आँखों को सोखती है,
तो कभी जल्लाहट को लेती है।
अपने सीने को सख़्त कर,
मेरा सिरहाना बनती है।
कहती है की देख मुझे,
सफ़ेद रंग में पाक लिपटी हूँ,
पर कोना कोना दर मेरा,
ईंट की दरारों में सनी है।
उन दरारों को गीली रेत से जोड़कर,
हज़ारों एहसासों का बोज लिए खड़ी है।
—-इशा—
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