Nov 1, 2018

भीगे अल्फ़ाज़

डल झील के सीने पे तैरती मेरी जाँ,
पिघलते चिनार के पत्तों में लिपटा मेरा अक़स,
ढलते सिरय में तेरी राह देख रहा है।

लोग कहते है कि खो गया है तू,
कहीं शायद तारों के पार, या कहीं शायद मिट्टी में।
पर ऐसा कैसे हो सकता है।
तेरी ख़ुशबू तो अभी भी मेरे हाथों पे है,
तेरे होंटों का एहसास अभी भी मेरे कानों पे है,
अभी भी दरवाज़ा खुला रखती हूँ,
तुझे देर से आने की आदत जो है।
अब रोशनी भी तो जल्दी जाती है,
और बर्फ़ की सफ़ेद सील्टे भी बड़ी हो रही है,
बेपरवाह मैं तुझे डूँड़े जा रही हूँ।

पर लोग  कहते है नहीं आएगा तू।
पर ऐसा कैसे हो सकता है।
तूने ही तो कहा था जाँ हूँ मैं तेरी,
मौत से पहले तू अलग कहाँ हो पाएगा।


—-इशा—-

अल्फ़ाज़

उस चिनार के लाल पत्तों का रंग बंद पन्नों में छुपाकर लायी हूँ,
तेरी आवाज़ से शायद फिर मौसम का रंग ना बदल जाए।



——इशा—-

और तुम

 काली दीवार की तरफ़ देखे जा रही हूँ,
कि कहीं से रोशनी आ जाए और उँगलियों से मैं कोई ताबीर बना सकूँ।
माना कि बंद रोनशदानों से कोई छुपके कहाँ आ पाएगा,
पर कम्बख़्त बादलों का रंग भी तो नहीं छँट पा रहा है।

कोई कहता है कि अँधेरा ही तो है, सो जाओ,
मगर जब हबस-दम हो तो पलकों को भारी पड़ता है।

चलो लिया ताक़या यादों का, और ओडी रज़ाई ग़म-ए-जाँ की,
अब बारिश हुई ज़ोर से, और दरवाज़ों का खटखटाना शुरू हुआ।
कोई आने को तो नहीं है, पर उम्मीदों पे ज़ोर किसका है,
फिर आँखें खुली, और फिर वही मजमा शुरू हुआ।


——इशा—-