Nov 1, 2018

और तुम

 काली दीवार की तरफ़ देखे जा रही हूँ,
कि कहीं से रोशनी आ जाए और उँगलियों से मैं कोई ताबीर बना सकूँ।
माना कि बंद रोनशदानों से कोई छुपके कहाँ आ पाएगा,
पर कम्बख़्त बादलों का रंग भी तो नहीं छँट पा रहा है।

कोई कहता है कि अँधेरा ही तो है, सो जाओ,
मगर जब हबस-दम हो तो पलकों को भारी पड़ता है।

चलो लिया ताक़या यादों का, और ओडी रज़ाई ग़म-ए-जाँ की,
अब बारिश हुई ज़ोर से, और दरवाज़ों का खटखटाना शुरू हुआ।
कोई आने को तो नहीं है, पर उम्मीदों पे ज़ोर किसका है,
फिर आँखें खुली, और फिर वही मजमा शुरू हुआ।


——इशा—-



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