फ़ितरत यूँ रही हर शख़्स की कि भागता रहा वो नए पलों की तलाश में. ढूँढता रहा ज़िन्दगी की दुकान में की अब नया पल आएगा, और उसके दिन की बोनी होगी। हर आता हुआ पल पुराना होता चला गया, फिर भी ना जाने किस नए पल की इंतज़ार में वो ताकता रहा...वक्त पे वक्त रखके नयी दुकान बनता रहा।
अब वक्त कम पड़ गया, पड़ना ही था, गिनके शायद उतना ही लाया था। और अब बचे हुए वक्त के धागे को खींचते हुए, फिर भागा, पर पीछे की और। उसी पहली दुकान पे, धूल में लथपथ गुज़रे हुए पलों को झाड़ते हुए, रोया आज बहुत वो।
नया तो बस एक भ्रम है। वो भ्रम जो इफ़रित से कम नहीं। बस वो चमकता हुआ धागा चाहिए होता है उसे...वक्त का।और अब वो जीत गया, वो धागा जो तुम्हारे पास खतम हो गया।
——-इशा——-
अब वक्त कम पड़ गया, पड़ना ही था, गिनके शायद उतना ही लाया था। और अब बचे हुए वक्त के धागे को खींचते हुए, फिर भागा, पर पीछे की और। उसी पहली दुकान पे, धूल में लथपथ गुज़रे हुए पलों को झाड़ते हुए, रोया आज बहुत वो।
नया तो बस एक भ्रम है। वो भ्रम जो इफ़रित से कम नहीं। बस वो चमकता हुआ धागा चाहिए होता है उसे...वक्त का।और अब वो जीत गया, वो धागा जो तुम्हारे पास खतम हो गया।
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