Nov 7, 2025

कुछ था kya

 मर गया वो जो भी था,

था भी कि नहीं था — पता नहीं।

थोड़ी धड़कनें रहीं, थोड़ी उम्मीद,

थोड़ा डर भी था कहीं।

चुप थी कि नज़रें न लग जाएँ,

अब बस चुप हूँ — कि किसको बताऊँ। 

—-isha—-

Bitter love

 Words were flung without a thought,

Sharp and cruel, with no remorse.

Shock first struck — I couldn’t breathe,

Then tears flowed, refusing to leave.


Silence followed, cold and flat,

Emptiness — I stayed with that.

Now the storm has lost its clatter,

It’s all just noise… it doesn’t matter.


——isha——


Jun 1, 2025

यह मेरी जगह नहीं

 मैं उसकी जगह कभी नहीं ले पाऊँगी,

जिसके लिए तुम आँसू बहाया करते थे,

जिसके लिए तुमने अपनी पूरी दुनिया कुर्बान कर दी थी।

मैं उसकी जगह कभी नहीं ले पाऊँगी,

चाहे तुम्हारा हर ग़म,

हर परेशानी अपने सीने में उतार लूँ।


तेरी उस तड़प को

अपने लिए कभी देख नहीं पाऊँगी,

जिसमें तू ख़ुद से ही रुस्वा होने को तैयार था।


पता नहीं क्यों अब भी इस मोड़ पर ठहरी हूँ,

किस इन्तज़ार में हूँ अब तक,

जब साफ़ नज़र आ रहा है —

ये मेरी दुनिया नहीं,

ये मेरी ज़मीन नहीं,

क्यूँकि ये मेरी कभी थी ही नहीं।


—-isha—-

Jan 6, 2025

मुफ़ीद बहस

 जहां जज़्बा हो, वहीं तो मुफ़ीद बहस होती है,

वरना माइक थमा दो, भीड़ बस ऐसे ही जमा हो जाएगी।


—-Isha—-

Sep 12, 2024

दीवार में चुनी हुई कहानियाँ

 

कभी कभी संगमरमर में तराशी हुई आँखें ही काफी हैं, पल झपकते उनका रंग नहीं बदलता।

पढ़ते जाओ तो कहानियों का ढेर मिलता है। चलो कहानियाँ भी ये जूठ नहीं बोलता।

पढ़ने वाले बस नज़रिया बना लेते है, एहसासों को कोई समझ नहीं पाता। 



——ईशा—- 


Dec 16, 2023

कहाँ से शुरू करूँ

 कहाँ से शुरू करूँ

कहानियों का बस्ता भरा है।

कुछ नामक लगा के चटपटी

तो कुछ मीठी सी शिकंजी वाली।

कुछ ठहाकों से भारी हाँसी वाली

तो कुछ ऐसी की रोके भी ना रुके आंसुओं वाली।

पर हर किसी के कुछ ख़ास लम्हे ज़रूर होते है

जिन्हें याद कर हम गाड़ियाँ गुज़र देते है।

मैं अभी भी टटोल रही ही इस बस्ते को

पलट रही हूँ कहानियों के हर पन्ने को

मिल नहीं रहा वो पल।

कभी था भी या खो गया

याद नहीं।

याद… वक़्त की फिसलती डोर पे टंगा हुआ, रिसता हुआ

डोर के छिले हुए कोने पे अटक गया है।

उसको भी छाँट के देख लू

कहीं से तो शुरू करूँ।


——-ईशा—-

Nov 25, 2022

यादों का अक्स

 यह किताब अभी भी बाक़ी है, 

कुछ पन्ने अभी भी ख़ाली है, 

लिखना तो बहुत कुछ था अभी 

पर कलम की सिहायी कुछ ख़ाली है ।

सोंचा कुछ माँग लूँ तुमसे,

या साथ बैठ के कुछ लफ़्ज़ों को भरू,

तुम्हें डूँडने निकली

तो पन्ने उड़ गए,

ख़याल तुम्हें जो सुनाने थे

वह भी गल गये।

नया सफ़ा, नया लफ़्ज़ कुछ है नहीं,

याद का बना हुआ अक्स ही अब काफ़ी है। 

Dec 22, 2019

वक्त के धागे

फ़ितरत यूँ रही हर शख़्स की कि भागता रहा वो नए पलों की तलाश में. ढूँढता रहा ज़िन्दगी की दुकान में की अब नया पल आएगा, और उसके दिन की बोनी होगी। हर आता हुआ पल पुराना होता चला गया, फिर भी ना जाने किस नए पल की इंतज़ार में वो ताकता रहा...वक्त पे वक्त रखके नयी दुकान बनता रहा।
अब वक्त कम पड़ गया, पड़ना ही था, गिनके शायद उतना ही लाया था। और अब बचे हुए वक्त के धागे को खींचते हुए, फिर भागा, पर पीछे की और। उसी पहली दुकान पे, धूल में लथपथ गुज़रे हुए पलों को झाड़ते हुए, रोया आज बहुत वो।
नया तो बस एक भ्रम है। वो भ्रम जो इफ़रित से कम नहीं। बस वो चमकता हुआ धागा चाहिए होता है उसे...वक्त का।और अब वो जीत गया, वो धागा जो तुम्हारे पास खतम हो गया।

——-इशा——-

Dec 7, 2019

पुराने हिस्से

आज दर्द के धागों से मैंने कुछ पुराने पन्नों को सी दिया,
वक्त के धागे फिर कुछ कमजोर से पड़ गए थे ।

—-इशा—-

Nov 24, 2019

ये दोपहरें


ये दोपहरें....यादों पे पड़ी धूल को चमका रही है। अब समझना यह है कि पसीने से तरी उँगलियों से उस धूल को पोंछ के संदूक को खोलाजाए या नहीं। कई पलों के नीचे दबा रखा था उन लम्हों कोजो पास तो चाहिए थी पर साथ नहीं। शायद इसलिए संदूक में बंद कर स्टोरके किसी कोने में छुपा दिया था उन्हें। क्या उलझन चल रही थी दिमाग़ और दिल के बीच। लम्हों को फिर ज़िंदा करने का भोज आँखेंसम्भाल पाएँगीया उनको पोंछते पोंछते अभी के पलों को मिटा जाएँगी। 
ये दोपहरें... उन सर्द रातों से भी उलझ रही थीमानो कह रही हो “मैं तो चली जाऊँगीसोना तुम्हें उसी बिस्तर पे हैक्या नींद  पाएगी।” कितना मंतक हो गया है दिमाग़या खुद से भाग रहा हैदिल की बड़ती हुई हर धड़कन पे अपने हाथ पीछे खींचे जा रहा है। ऐसे ही कटतीहै ज़िन्दगी शायदऔर सकूँ कभी  ही नहीं पाता है।