मर गया वो जो भी था,
था भी कि नहीं था — पता नहीं।
थोड़ी धड़कनें रहीं, थोड़ी उम्मीद,
थोड़ा डर भी था कहीं।
चुप थी कि नज़रें न लग जाएँ,
अब बस चुप हूँ — कि किसको बताऊँ।
मर गया वो जो भी था,
था भी कि नहीं था — पता नहीं।
थोड़ी धड़कनें रहीं, थोड़ी उम्मीद,
थोड़ा डर भी था कहीं।
चुप थी कि नज़रें न लग जाएँ,
अब बस चुप हूँ — कि किसको बताऊँ।
Words were flung without a thought,
Sharp and cruel, with no remorse.
Shock first struck — I couldn’t breathe,
Then tears flowed, refusing to leave.
Silence followed, cold and flat,
Emptiness — I stayed with that.
Now the storm has lost its clatter,
It’s all just noise… it doesn’t matter.
——isha——
मैं उसकी जगह कभी नहीं ले पाऊँगी,
जिसके लिए तुम आँसू बहाया करते थे,
जिसके लिए तुमने अपनी पूरी दुनिया कुर्बान कर दी थी।
मैं उसकी जगह कभी नहीं ले पाऊँगी,
चाहे तुम्हारा हर ग़म,
हर परेशानी अपने सीने में उतार लूँ।
तेरी उस तड़प को
अपने लिए कभी देख नहीं पाऊँगी,
जिसमें तू ख़ुद से ही रुस्वा होने को तैयार था।
पता नहीं क्यों अब भी इस मोड़ पर ठहरी हूँ,
किस इन्तज़ार में हूँ अब तक,
जब साफ़ नज़र आ रहा है —
ये मेरी दुनिया नहीं,
ये मेरी ज़मीन नहीं,
क्यूँकि ये मेरी कभी थी ही नहीं।
जहां जज़्बा हो, वहीं तो मुफ़ीद बहस होती है,
वरना माइक थमा दो, भीड़ बस ऐसे ही जमा हो जाएगी।
—-Isha—-
कभी कभी संगमरमर में तराशी हुई आँखें ही काफी हैं, पल झपकते उनका रंग नहीं बदलता।
पढ़ते जाओ तो कहानियों का ढेर मिलता है। चलो कहानियाँ भी ये जूठ नहीं बोलता।
पढ़ने वाले बस नज़रिया बना लेते है, एहसासों को कोई समझ नहीं पाता।
——ईशा—-
कहाँ से शुरू करूँ
कहानियों का बस्ता भरा है।
कुछ नामक लगा के चटपटी
तो कुछ मीठी सी शिकंजी वाली।
कुछ ठहाकों से भारी हाँसी वाली
तो कुछ ऐसी की रोके भी ना रुके आंसुओं वाली।
पर हर किसी के कुछ ख़ास लम्हे ज़रूर होते है
जिन्हें याद कर हम गाड़ियाँ गुज़र देते है।
मैं अभी भी टटोल रही ही इस बस्ते को
पलट रही हूँ कहानियों के हर पन्ने को
मिल नहीं रहा वो पल।
कभी था भी या खो गया
याद नहीं।
याद… वक़्त की फिसलती डोर पे टंगा हुआ, रिसता हुआ
डोर के छिले हुए कोने पे अटक गया है।
उसको भी छाँट के देख लू
कहीं से तो शुरू करूँ।
——-ईशा—-
यह किताब अभी भी बाक़ी है,
कुछ पन्ने अभी भी ख़ाली है,
लिखना तो बहुत कुछ था अभी
पर कलम की सिहायी कुछ ख़ाली है ।
सोंचा कुछ माँग लूँ तुमसे,
या साथ बैठ के कुछ लफ़्ज़ों को भरू,
तुम्हें डूँडने निकली
तो पन्ने उड़ गए,
ख़याल तुम्हें जो सुनाने थे
वह भी गल गये।
नया सफ़ा, नया लफ़्ज़ कुछ है नहीं,
याद का बना हुआ अक्स ही अब काफ़ी है।