रात की ख़ामोशी भी कितना शोर मचा रही है,
उलझती हुई उलझनों को और उलझा रही है.
रेत की परतों पे जो मकान बनाये थे
उनके निशाँ अभी भी बाकी है.
वही छाप उस ख़ामोशी में तूफान बना रही है,
उलझती हुई उलझनों को और उलझा रही है.
रंगों को लेके हाथ में रंगती थी दुनिया को,
आज रंगों के दब्भों से डर रही है,
काले रंग की सिहाई में रंगों को छुपा रही है,
उलझती हुई उलझनों को और उलझा रही है.
उलझती हुई उलझनों को और उलझा रही है.
रेत की परतों पे जो मकान बनाये थे
उनके निशाँ अभी भी बाकी है.
वही छाप उस ख़ामोशी में तूफान बना रही है,
उलझती हुई उलझनों को और उलझा रही है.
रंगों को लेके हाथ में रंगती थी दुनिया को,
आज रंगों के दब्भों से डर रही है,
काले रंग की सिहाई में रंगों को छुपा रही है,
उलझती हुई उलझनों को और उलझा रही है.
wah .... nice 1 ... its urs or as usal copy paste...?
ReplyDeleteshut up...none of my poems r copy paste. they r all my own
ReplyDelete:)
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