Apr 15, 2011

Fir naya Intzaar

आज पता चला है- 
दुनिया में कोई किसी का नहिऊ होता. 
फिर भी न जाने क्यों, 
यह दिल किसी का दिल तोडना नहीं चाहता. 

अपनी तरफ से हमने वफ़ा की, 
उम्मीद की वाफी की.
मगर दुनिया की हर सांस ने-
दिखाई सूरत बेवफाई की. 

अब तो सौ टुकड़े में भी-
मैं नहीं मिल पाऊँगी,
टूटी इस तरह कि शीशे-
खुद से ही न निकल पाऊँगी. 

फिर भी तैरती आँखें-
न जाने किसका इंतजार करती है. 
क्यों उन्मीद लगाए बैठा है यह दिल-
कि फिर जुड़ पायेगा. 

वही हु मैं, 
बदलती दुनिया के साथ-
न बदलती हुई ईशा. 
इतने धकों, ठोकरों के बाद भी, 
रास्ते में ही खड़ी हूँ. 

फिर किसी नई उन्मीद के साथ, 
एक नई किरण की आशा में.
भटकती हुई दुनिया में,
खुद को संभालती हुई. 



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