Nov 1, 2018

अल्फ़ाज़

उस चिनार के लाल पत्तों का रंग बंद पन्नों में छुपाकर लायी हूँ,
तेरी आवाज़ से शायद फिर मौसम का रंग ना बदल जाए।



——इशा—-

और तुम

 काली दीवार की तरफ़ देखे जा रही हूँ,
कि कहीं से रोशनी आ जाए और उँगलियों से मैं कोई ताबीर बना सकूँ।
माना कि बंद रोनशदानों से कोई छुपके कहाँ आ पाएगा,
पर कम्बख़्त बादलों का रंग भी तो नहीं छँट पा रहा है।

कोई कहता है कि अँधेरा ही तो है, सो जाओ,
मगर जब हबस-दम हो तो पलकों को भारी पड़ता है।

चलो लिया ताक़या यादों का, और ओडी रज़ाई ग़म-ए-जाँ की,
अब बारिश हुई ज़ोर से, और दरवाज़ों का खटखटाना शुरू हुआ।
कोई आने को तो नहीं है, पर उम्मीदों पे ज़ोर किसका है,
फिर आँखें खुली, और फिर वही मजमा शुरू हुआ।


——इशा—-


Nov 10, 2017

तू है मेरा

तू है कहीं दूर सितारों के परे,
फिर भी कितने पास मेरे बसता है,
दिन के अँधेरें में भी,
रोशनी सा चमकता है।
किसी को तू दिखता नहीं,
फिर भी तेरे आगे झुकता है,
तेरे तसवुर में मुझे,
मैं मिलता है।

—-इशा—


बेचारा सपना

चुपचाप सा कोना पकड़ा मैंने अपना,
ठंडे फ़र्श पे जो सोया मेरा सपना,
लगा कि तकिया बनाके रखूँ अपने सीने को,
शायद सो पाए वोह आँखों में पर हो ना।

—इशा—

दीवारें

आज कल दीवारें दोस्त बनी बैठीं है,
जो बोलती नहीं बस सुनती है,
कभी आँखों को सोखती है,
तो कभी जल्लाहट को लेती है।
अपने सीने को सख़्त कर,
मेरा सिरहाना बनती है।
कहती है की देख मुझे,
सफ़ेद रंग में पाक लिपटी हूँ,
पर कोना कोना दर मेरा,
ईंट की दरारों में सनी है।
उन दरारों को गीली रेत से जोड़कर,
हज़ारों एहसासों का बोज लिए खड़ी है।

—-इशा—

May 26, 2017

वफ़ा

ऐ दर्द इतनी भी वफ़ा ना कर
कि बेवफ़ाई को शर्म आ जाए।
इतना भी आँखों में ना भर
कि बारिश को शर्म आ जाए।

खिड़की

यह धूप का मेरी खिड़की से झाँकना,
कह रही हो जैसे आइना लेके आयी हूँ।
ज़रा चेहरा तो देख इनमे,
कहीं घुम हुई तुम ना मिल जाए।

---इशा----

बेचारा ताकिया

कहीं बैठके एक कोने में
किसी तकिए को गले लगाकर
कुछ बातें करतें है।
कुछ बीती हुई, कुछ हो रहीं सुइयों के बक्से खोलते है।
उन बक्सों में दो बूँद आँसु मिलेंगे,
उनसे तकिए को भिगोते है।

---इशा---

Mar 7, 2017

सूखा पेड़

इस पेड़ की हर शाख़ से गिरता पत्ता
कहता है मैं तेरा कभी था ही नहीं।
जो रंग उड़ा उस पेड़ का,
जैसे कभी पानी मिला ही नहीं।
अब कौनसी हवा में खनक बजेगी,
कौन सा घोंसला बनेगा अभी।

अब घबराया वोह पेड़
टहनियों में ख़ुद को छुपाने की कोशिश करता है,
तेज़ झोंका भी उसके जिगर को हिला कर रखता है।
उम्मीद ना धूप आने की है,
ना गुज़री हुई बारिश की।
रात के अंधेरे मैं अब या डराता है,
या शायद ख़ुद से ही डर जाता है।

---इशा---

Feb 5, 2017

कमबख़्त मोहब्बत

मोहब्बत इबादत से कम नहीं,
खुदा है फिर भी खुदा का कुछ पता नहीं।
कोई कहता है जन्नत के रास्ते पे चला है तू,
पर इससे बड़ा दर्द कुछ भी नहीं।
आब-ए-हयात सा मीठा कह ले कोई,
सूकूँ-ए-दिल से बहले कोई,
समन्दर से ज़्यादा बहते आसूँ,
दोज़ख़ से कम ग़म नहीं।

---इशा---